Thursday, June 4, 2020

दू-टप्पी

सब किओ सुनैत-बजैत छी जे- साहित्य समाजक दर्पण थिक। अर्थात् साहित्य समाजक नीक-बेजायक निष्पक्ष चित्र जन-सामान्यक बीच उपस्थित करैत अछि। यैह साहित्य जखन इतिहासक पन्नापर छपैत अछि तँ ओहिमे हम मानव सभ्यताक विकासक चित्र देखैत छी। साहित्य वर्तमानक विश्लेषण थिक, भूतकालक व्याख्याता थिक आ भविष्यक स्वप्नद्रष्टा थिक। धरि साहित्य अपन समस्त भूमिकाक सफलतापूर्वक निर्वहन करय, तकर दायित्व साहित्यकारक होइत छनि। एवं प्रकार साहित्यकारकेँ निष्पक्षतासँ अपन दायित्व निर्वहन करबाक चाहियनि, यैह हुनक धर्म थिक। आखिर कर्तव्यसँ बढ़ि आन कोन धर्म होइत छैक?
आब प्रश्न उठैत अछि जे ई निष्पक्षता की थिक। वस्तुतः निष्पक्षता न्यायक पक्षधरता थिक, उचितक समर्थन थिक, अनुचितक आलोचना थिक। निष्पक्षता पक्ष-विपक्षसँ फराक कोनो तेसर विन्दू नहि होइत अछि। निष्पक्षताक आदर्श रूपमे हमरा लोकनि सदिखन दूटा प्रतीकक उपयोग करैत छी-  हंस ओ न्यायधीश। एही दू प्रतीकक जँ निष्पक्ष कहल जाइबला क्रियापर ध्यान देब तँ हमर उपरोक्ष कथन स्पष्ट भए जायत। हंसकेँ हमरा लोकनि नीर-क्षीर विवेकी कहैत छी। मुदा हंस क्षीर-लोभी अछि। ओ दूध आ पानिकेँ अलग नहि करैत अछि, दूध ग्रहण करैत अछि आ पानि छोड़ि दैत अछि। तहिना न्याधीशक समक्ष जखन कोनो मामला अबैत छनि तँ ओ दुनू पक्ष- पक्ष आ विपक्षक जिरह सुनैत छथि, सबूत गुनैत छथि आ तकर बाद न्यायक पक्षमे, सत्यक पक्षमे ठाढ़ होइत छथि। तेँ कोनो विषम परिस्थितिमे साहित्यकारकेँ नीर-क्षीर विवेकी हंस जकाँ किंवा न्यायप्रिय न्यायधीश जकाँ सत्य ओ न्यायक पक्षमे ठाढ़ होयबाक चाहियनि। अपक्ष रहब निष्पक्षता नहि, कायरता थिक।
प्रतीक जीवनकेँ गति प्रदान करबामे अधिककाल सहायक सिद्ध होइत अछि। जीवन-यात्रामे लक्ष्य-प्राप्तिक माध्यमक
रूपमे कोनो प्रकारक प्रतीकक उपयोग अनर्गल नहि। तथापि ध्यान रखबाक चाही जे प्रतीक मात्र साधन थिक, साध्य नहि। काल्हि हमरा लोकनि प्रधानमंत्रीक आग्रहपर राष्ट्रिय एकताक प्रदर्शन निमित्त दीपोत्सव मनाओल। ई आयोजन एक प्रतीकात्मक आयोजन छल। मुदा एहन आयोजन ओहन व्यक्तिक लेल अधिक उपयोगी अछि जनिकर मनक भीतर राष्ट्रिय एकताक भावना क्षीण भेल जा रहल छनि, अथवा जनिकर मनक राष्ट्रिय एकताक भावना एखन कोनो ने कोनो कारणे शैशवावस्थामे छनि। जे लोकनि पहिनहिसँ राष्ट्रिय एकताक भावनासँ ओतप्रोत छथि हुनका लेल एहन आयोजन भेनहि अथवा नहि भेनहि कोनो अन्तर नहि पड़ैत अछि। उदाहरणस्वरूप जनिका मनमे सदति भगवान वास करैत छथिन हुनका भगवानक स्वरूप-दर्शन लेल कोनो मंदिर जयबाक आवश्यकता नहि पड़ैत छनि। ओ अपना भीतरे भगवानक दर्शन करैत छथि। कहबाक आशय जे यदि कोनो कारणे भारतवासी कोनो समुदाय, समूह अथवा व्यक्तिक मनमे राष्ट्रिय एकताक भावन कमजोर पड़ल तँ तकरा काल्हि हमरा लोकनि पुनः मजगूत करबाक लेल प्रयास कयलहुँ। मुदा की ई प्रयास ईमानदार छल?
मुख्यधाराक मीडियासँ लऽ कऽ सोशल मीडिया धरि सगरो घृणाक पसार भेल अछि। समुदाय विशेष ओ समूह विशेषक विपक्षमे विष उगिलल जा रहल अछि। एहना परिस्थितिमे, सामाजिक सद्भावक अभावमे, सामुदायिक संघर्षसँ, विपक्षीक प्रति घृणा भाव पसारि कऽ की राष्ट्रीय एकताक भावना हासिल कयल जा सकैत अछि? एहि प्रश्नक उत्तर ओ व्यक्त नहि ताकि सकैत छथि जनिका अपना भीतरक राष्ट्रिय भावनाकेँ तकबाक लेल प्रतीकक सहारा लेबय पड़ैत छनि। हुनका ओहि कर्मकाण्डसँ पलखति कतय छनि? एहि प्रश्नक उत्तर वैह लोकनि ताकि सकैत छथि जनिका विश्वास छनि जे हुनका भीतरक राष्ट्रिय भावनाक सुरक्षा-संवर्द्धना लेल कोनो प्रतीक कि माध्यमक आवश्यकता नहि, हुनकर बौद्धिक-चेतने पर्याप्त अछि। समाज साहित्यकारमे एही बौद्धिक चेतनाक उपस्थितिक अपेक्षा रखैत अछि आ तें एकटा विशेषाधिकार उपलब्ध करबैत अछि। एहि विशेषाधिकारक मर्यादाक सुरक्षाक कर्तव्य साहित्यकार लोकनिक छनि।
एकटा साहित्यकारक रूपमे यदि अहूँ अपन साहित्यकेँ समाजक दर्पण मानैत छी तँ निश्चित रूपेँ अहाँकेँ समाजक विपरीत पाँतिमे ठाढ़ भए समाजक समस्त गतिविधिक सूक्ष्मता ओ निष्पक्षतासँ परिदर्शनक करय पड़त। सत्ताक सम्मुख ओ विपरीत पाँतमे ठाढ़ रहय पड़त। सत्ताक पाछाँ कि समाजक पाछाँमे ठाढ़ भेल अहाँ अपन लेखनीक माध्यमे ओकर असल स्वरूपक ओकरा दर्शन नहि करा सकब। आखिर पीठक पाछाँ राखल अयना अहाँक चेहरा कोना देखा सकत?
जे साहित्य समाजक पछोर धयने कि सत्ताक पाछाँ-पाछाँ लिखाइत अछि से वस्तुतः साहित्य नहि नारा अथवा जयकारा होइत छैक। साहित्यकारकेँ विद्रोही होयब स्वभाव होयबाक चाही। विद्रोही कहयबासँ साहित्यकारकेँ बचबाक नहि चाही। सोचियौक, यदि विभीषण रावणक विद्रोही नहि भेल रहैत तँ कि रामकेँ लंकाविजय एतेक सुविधापूर्वक प्राप्त होइतनि? विद्रोही कहायब साहित्यकार लेल गारि नहि होइत छैक, साहित्यकार लेल गारि होइत छैक बेरपर चुप्प रहब। समाज ओ सरकार तक सही सूचना, जनताक आशा-अपेक्षा पहुँचायब, तकर पूर्तिक लेल अपन लेखनीक माध्यमे संघर्ष करब साहित्यकारक कर्तव्य थिक। ध्यान रहय साहित्यकार अनिवार्यतः पत्रकार होइत अछि।

Published on FB 06.04.2020

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