मैथिली, भौगोलिक दृष्टि से भारत से नेपाल तक विस्तृत मिथिला भू-भाग की भाषा
है तथा भारत के बिहार एवं झारखण्ड प्रदेश के उनतीस जिलों में तथा नेपाल के लगभग
तेरह जिलों मे मुख्यतः बोली जाती है । दोनों देशों मे करीब सात करोड़ लोग मैथिली
भाषा-भाषी हैं । आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच मैथिली भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है ।
भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भारोपीय भाषान्तर्गत मागधी प्राकृत की अपभ्रंश से
उत्पन्न भाषाओं- मैथिली, असमिया, ओड़िया तथा बंगाली के बीच मैथिली प्राचीनतम भाषा
है । सातवीं-आठवीं सदी में स्वतंत्र भाषा के रूप मे मैथिली का जो विकास हुआ वह
ग्यारहवीं-बारहवीं सदी आते-आते अत्यंत परिष्कृत होकर सामने आया । मैथिली भाषा के
इस आदिकालीन विकास यात्रा का सहज अनुमान ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित 'वर्णरत्नाकर' मे प्रयुक्त भाषा से लगाया जा सकता है । चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी
में विद्यापति की रचनाओं के बल पर इस भाषा की लोकप्रियता शिखर पर पहुँच गई । आज
मैथिली संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज हो चुकी है तथा नेपाल में इसे द्वितीय
राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है ।
सिद्ध साहित्य अथवा चर्यापद, डाक एवं घाघ वचनावली, प्राकृत-पैंगलम में प्रयुक्त मैथिली पद एवं ज्योतिरीश्वर कृत
धुर्तसमागम नाटक तथा वर्णरत्नाकर नामक गद्य-ग्रन्थ मैथिली भाषा की प्राचीनतम
साहित्य है । विदित हो कि वर्णरत्नाकर आधुनिक भारतीय भाषाओं उपलब्ध प्राचीनतम
गद्य-ग्रंथ भी है । इस ग्रंथ की भाषा-शैली देखकर प्रतीत होता है कि इससे पूर्व भी प्रचूर मात्रा
में रचनाएँ अवश्य हुई होगी, कारण इस ग्रंथ की भाषा
अत्यंत विकसित है ।
मैथिली साहित्य का मध्ययुग वस्तुतः विद्यापति
युग है । कारण इस युग मे विद्यापति सबसे समर्थ रचनाकार हुए तथा समस्त पूर्वांचल
में व्याप्त उनकी लोकप्रियता उन्हे निर्विवाद युगपुरुष बना दिया । मध्ययुगमे जब
इस्लामी आक्रमण से आक्रांत भारतीय समाज अपनी सांस्कृतिक सुरक्षा हेतु संघर्षरत था, मिथिला के लोग अपनी सांस्कृतिक परिचिति की
सुरक्षा हेतु अन्तर्मुखी हो गये थे । इसी क्रममे यहाँ परम्परागत धार्मिक मान्यताएँ
एवं सभ्यता-संस्कृति आधारित आचार-विचार के पुनर्निधार्णन का प्रयास होने लगे । इस
सामाजिक पुनर्संगठन मे विद्यापति तथा उनके पूर्वजों ने बहुमूल्य योगदान दिया । मगर
जिन रचनाओं ने विद्यापति को युगपुरुष के रूप में स्थापित किया वह हैं उनकी पदावली
। यहीं असंख्य गीति विद्यापति को मिथिला तथा इसके समीपवर्ती अन्य प्रदेशों में
आश्चर्यजनक रूप से प्रतिष्ठित किया । विद्यापति के गीति की लोकप्रियता तथा समकालीन
और परवर्ती साहित्यकारों पर उसके प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि
परवर्ती चार सौ वर्षों तक रचनाकार उनके काव्य-परिपाटी का अनुसरण कर रचनाएँ करते
रहे, मैथिली तथा स्थानीय भाषाओं के मिश्रण से बंगाल, असम तथा ओड़िसा में एक कृत्रिम भाषा-ब्रजबुलि का
निर्माण हुआ । मध्ययुग में कविकोकिल विद्यापति पूर्वी भारत की लोकभाषाओं को
साहित्यिक भाषा की स्तर तक पहुँचाने वाले प्रथम रचनाकार हुए । उनके मैथिली पदों का गांभीर्य, अनुभूति सघनता, संगीतात्मकता, तथा भाषायी सरलता उसे कालजयी
बनाती है ।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मैथिली
साहित्य विद्यापति के प्रभाव से मुक्त होने लगी तथा इस में आधुनिकता का प्रवेश
होने लगा । यह कालखण्ड भारत हीं नहीं अपितु विश्व-इतिहास के
लिये भी अत्यंत महत्वपूर्ण था । सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक आदि जीवन के
हरेक क्षेत्र में इस समय परिवर्तन की गहमा-गहमी थी । भारतीय समाज पाश्चात्य
विचारधारा से सम्पर्कित हुआ फलतः यहाँ बौद्धिक विकास की दृष्टि को गति मिला ।
वैज्ञानिकों ने प्रकृति का गहन अध्ययन-अनुशीलन कर मानवोपयोगी साधन का आविष्कार
किया । नवीन सोच और बौद्धिकता के आगे समाज में व्याप्त रूढ़ीवादी विचार
निष्प्रभावी होने लगी । वैज्ञानिक विकास ने औद्योगिक क्रान्ति का बीजारोपण किया ।
परिणामस्वरूप उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विस्तार होने लगा । प्रतिक्रिया
स्वरूप समाज में नवजागरण आई और देश में स्वाधीनता आंदोलन का आरम्भ हुआ ।
उन्नीसवीं शतक के अन्तिम चरण मे नवजागरण की लौ
मिथिला में पहुँची तथा बीसवीं सदी के आरम्भ तक समाज पर इसका स्पष्ट प्रभाव भी
दिखने लगा । मानव सभ्यता के इतिहास में खासकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में बीसवी सदी
का आगमन ऐसे वातावरण में हुआ जब यहाँ के लोग अपनी नई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
कुछ नया करने, कुछ नया रचने के लिए छटपटा रहे थे । इस छटपटाहट
की पृष्ठभूमि में थी पारम्परिक जड़ता से मुक्ति की आकांक्षा और स्वातंत्र्य चेतना ।
इसी संक्रमणकाल में मैथिली पत्रकारिताक का
आरम्भ हुआ तथा इसके माध्यम से मैथिली साहित्यकारों ने सामाजिक जड़ता पर प्रहार
शुरू किया । साथ हीं उन्होने राष्ट्रवादी चेतना को स्वर दिया, अंग्रेजी हुकूमत के अन्याय और अत्याचार के
विरुद्ध समाज को जगाने का अभियान चलाया । कथा, कविता,
उपन्यास, निबंध समेत प्रायः सभी विधाओं में इस समय समाज
मे व्याप्त परम्परागत रूढ़ि-भंजन तथा प्रगतिकामी समाज के निर्माण हेतु लेखकों ने
पृष्ठभूमि तैयार करना शुरू किया ।
जब भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन अपने चरम पर था, तभी मैथिली साहित्यधारा में नये-नये सामाजिक
सरोकार का समावेश होने लगा। अन्यान्य भाषाओं की तरह मैथिली
साहित्य में भी नये विचारधाराएँ मुखरित हुई, जो छायावादी, प्रगतिवादी और
प्रयोगवादी प्रवृति के रूप में पश्चात विकसित होते गये । देश की राजनीतिक, धार्मिक मान्यता, अर्थव्यवस्था, सामाजिक ओ मानवीय
मूल्यों में जो परिवर्तन आये, साहित्यिक पटल पर उसका
चित्रण अवश्यंभावी था । इसी क्रम में युगीन जटिलता, अंतर्विरोध, वैयक्तिक अंतर्द्वन्द्व
को सुलझाने तथा युग-जीवन की विसंगतियाँ एवं बिडम्बनाओं के उद्घाटन का साहित्यिक
प्रयास क्रमशः 'नवलेखन' का आन्दोलनकारी स्वरूप धारण किया ।
स्वाधीनता का अनुभव भारतीय साहित्यकारों तथा
नागरिकों के लिए
नया था । स्वदेशी शासन व्यवस्था से लोगों की बहुत सारी अपेक्षाएँ
थी । मगर स्वाधीन भारत में राजनीतिक छल-प्रपंच, स्वार्थपरता तथा राजनेताओं द्वारा सामाजिक वातावरण को दूषित करने
का जो तिकड़म रचा जाने लगा, नव लेखकों में इसके
प्रति अनास्था, असंतोष और अविश्वास उत्पन्न हुआ । जीवन की बढ़ती
विषमता ने वर्गसंघर्ष को जन्म दिया । समाज मे बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव, बाढ़-सूखा, किसानों की बदहाली आदि अनेक ऐसे ज्वलंत मुद्दे साहित्यकारों के
समक्ष मुँह बाये खड़ी थी। ऐसे में साहित्यकारों ने जीवन के कटु-मधु अनुभवों का
यथार्थ चित्रण करना उचित समझा ; व्यवस्थागत भ्रष्टाचार, शासन की विफलत, तथा सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अपना स्वर बुलंद किया । दलित चेतना, भाषायी अस्मिता, सामाजिक सौहार्द, वंशवाद, अपराध, पलायन, अशिक्षा आदि अनेक ऐसे
विषय हैं, जिसपर विगत सदी के उत्तरार्द्ध में मैथिली
साहित्य में गंभीरतापुर्वक चिन्तन किया गया । साथ हीं मिथिला की आँचलिक वैशिष्ट्य, प्राकृतिक सौन्दर्य, सांस्कृतिक महिमा, वन्धुत्व, औदार्य व मानवता के प्रति आग्रह, विश्वप्रेम, सर्वहारा के उन्नति की आकांक्षा, श्रम व संघर्ष का जयगान आदि सकारात्मकता को भी साहित्यकारों ने
अपनी रचनाओं मे स्थान दिया। बीसवीं सदी के इस वैचारिक खण्डन-विखण्डन से समकालीन
साहित्यिक प्रवृतिया भी अप्रभावित नहीं रह सकी है । समकालीन अर्थात् इक्कीसवीं सदी
का मैथिली साहित्य विगत शताब्दी की पृष्ठभूमि से अभी तक पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकी
है तथापि इसमे कई नये प्रवृतियों का समावेश हो चुका जो इस युग के साहित्य को अपन
पूर्ववर्ती साहित्य से पृथक करती है ।
21वी सदी जीवन के हरेक क्षेत्र में नई संभावना, नई चुनौती लेकर आई है। वैश्वीकरण और
संचारक्रान्ति इस सदी की दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं जिसके परिणामस्वरूप आज समूची
दुनिया विश्वग्राम में परिणत होती प्रतीत हो रही है। आज अगर मानव को विश्व के किसी
एक कोने में कोई उपलब्धि हासिल होती है अथवा कहीं कोई घटना घटित होता है तो उसका
प्रभाव, उसकी खबर समूची दुनिया में पहुँचने मे महज चंद
सेकेण्ड लगते हैं। विश्व भर के मानव, समुदाय और सभ्यताएँ आज
एक कड़ी के रूप में आबद्ध सी प्रतीत होती है । भौगोलिक सीमाओं से पड़े प्रत्येक
व्यक्ति आज विश्वमानव बन चुका है । मगर सभ्यता की यही उपलब्धि आज की युगीन त्रासदी
भी है। भूमंडलीकरण से हम सूचनाओं के स्तर पर तो पूरे विश्व में एक दूसरे के नजदीक
आ रहे हैं, परस्पर सहयोगी हो रहे हैं। किन्तु सामाजिक स्तर
पर दृष्टिपात करने से परिवार टूटते नजर आ रहे हैं। पारिवारिक सदस्यों का आपसी
मेल-मिलाप कम हो गया है। लोग सामूहिक परिवार की बजाए एकल परिवार की परम्परा की ओर
अग्रसर हुए जा रहे हैं। भारतीय परम्पराओं को तोड़ते हुए पश्चिम संस्कृति पर
न्योछावर होने को आतुर हैं।
1991 में आर्थिक सुधार को अपनाकर भारतीय अर्थवतावस्था में कई सुधार किये
गए और बाधाओं को हटाकर अर्थव्यवस्था को विश्व के लिए खोला गया। उद्देश्य था कि
इससे देश की माली हालात सुदृढ़ होगी, लोगों को रोजगार मिलेगा, समाज का समावेशी विकास होगा। मगर बाजारवादी
ताकतों ने सुधारकों के इस सपने को चकनाचूर किया । देश का आर्थिक विकास तो हुआ मगर
समाज की आर्थिक संरचना और असंतुलित होती गई । बाजार बड़े निगमों तथा विदेशी
कारोवारीयों से प्रभावित होने लगा। अधिक से अधिक मुनाफा कमाना हीं समूचे आर्थिक
तंत्र का उद्देश्य बन गया। फलतः अमीर-गरीब के बीच की खाई और चौड़ी होती गई, सीमान्त लोगों का जीवन और संघर्षमय हो गया है।
समकालीन मैथिली रचनाकारो ने लोगों के इस संघर्षगाथा को बखूबी अपनी रचनाओं मे उकेरा
है ।
इसके अलावे वर्तमान जीवन में संबंधों की
विसंगतियाँ, आधुनिक सोच से उत्पन्न अंतरद्वंद एवं कोलाहल, आम स्त्री की जीवन के विविध पहलू, कैरियर, बॉस और विदेश के बीच विस्मृत होते माता-पिता तथा परिवार, कामयाबी की तलाश में युवा पीढ़ी का, आंतरिक सुकून नहीं मिलने के कारण सरलता से
अपराधित कारनामों की ओर अग्रसर होना, आधुनिक जीवन शैली और
भौतिक विकास के दुष्परिणाम से उत्पन्न पर्यावरण-संकट के प्रति चिन्ता आदि चिन्ता
बोध समकालीन मैथिली रचनाओं मे मुख्यतः उभरी है । भ्रष्टाचार, मँहगाई, सुविधाओं का अभाव, बेरोजगारी, अशिक्षा, यौन-अपराध, क्षद्म, प्रपंच, राजनीतिक मूल्यों के स्खलन, मानवीय मूल्यों का पतन आदि अनेक विषय हैं जो समकालीन मैथिली रचनाओं
खासकर कविताओं में रूपायित हुआ है।
आज सभी क्षेत्र के लोग अपनी क्षेत्रीय पहचान, आँचलिक जीवन-संस्कृति के संरक्षण हेतु अधिक
सचेष्ट प्रतीत होतें हैं । इसका कारण यह है कि विश्वग्राम की चकाचौंध मे उन्हें
अपनी निजत्व खतरे में नजर आ रही है । मैथिली साहित्यकारों का बड़ा वर्ग आज इस
समकालीन युगबोध से संपन्न है एवं अपनी आँचलिकता के विविध आयाम को
पुनर्प्रतिष्ठापित देखना चाहता है । मगर यह तभी संभव है जब मिथिला का
ग्राम्य-जीवन-व्याकरण अक्षुण्ण रहेगा । अतः साहित्यकारों ने अपनी मातृभूमि के
सरोकार-संवेदना को जानने के लिये यहाँ की ग्राम्य-जीवन के विविध पक्षों का
सूक्षमता से अध्ययन करना आरम्भ किया । इस क्रम में उन्होने यहाँ जो दुर्गति, अभाव, कुंठा, शोषण और संघर्ष पाया, नारी का दूरावस्था देखा, मूलभूत सुविधाओं का
अभाव देखा तथा शहरी चमक-दमक से आकर्षित लोग देखे उसका वर्णन अपनी रचनाओं मे किया ।
समकालीन मैथिली साहित्य के निशाने पर वह
व्यवस्था है जो समाज में समता समानता व बंधुत्व के मार्ग में बाधक है। जो अपने
वर्गीय स्वार्थों के तहत वास्तविकता की शिनाख्त को हमेशा के लिए खत्म करने की
फिराक में है। समकालीन मैथिली साहित्य बड़े ही मुस्तैद तरीके से समय और समाज के
मूल्याङ्कन पर बल देती है, उसे वह सब नापसंद है
जिससे समाज की प्रगति अवरुद्ध होती हो। ये उन नीतियों पर अपना विरोध दर्ज कराती है,जो समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व न
करती हो। यह समाज के उस वर्ग का नेतृत्व करती है, जो हाशिये पर है जिसे प्रताड़ित किया गया है। जिसकी पक्षधरता समाज
के वौद्धिक वर्ग का दायित्व है। समकालीन मैथिली साहित्य की संघर्ष चेतनामे विगत
शताब्दी सा अनास्था,
आक्रोश और विद्रोह नहीं
है बल्कि उसमे आशा,
आस्था और विश्वास है।वह
इंसानी जिंदगी को बेहाल कर देनेवाली समस्याओं, मानवीय व्यक्तित्व को कुंद कर देनेवाली शक्तियों और मनुष्य की
दु:प्रवित्तियों की शिनाख्त करती हुई उससे बाहर निकालने के मार्ग
को खोजती है| वह सामाजिक व्यवस्था के उन कारकों को प्रश्नांकित करती है जिसके कारण
आमजन को दो जून की रोटी भी नहीं नशीब हो पा रही है।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि आज मैथिली रचनाकार एक
साथ कई मोर्चों पर लड़ रहें हैं। एक तरफ वे वैश्वीकरण के कारण अपनी सांस्कृतिक
परिचित पर मँडराते खतरे से वाकिफ, उसके समृद्धि और
वैविध्य को संरक्षित करने हेतु प्रयासरत हैं तो दूसरी तरफ वे 'वसुधैव कुटुम्बकम्" के मर्यादा को भी
अक्षुण्ण रखने के प्रयास में हैं। यांत्रिक जीवन की यंत्रणा झेल रहे मानवजाति की
दुःख-दर्द से वे दग्ध है तथा लगातार क्षीण होती मानवता को बचाने हेतु हरसंभव
प्रयास कर रहें हैं। वे जानते हैं कि ऐसा तभी संभव है जब वे मानव हृदयमे उच्चतम
जीवन-आदर्श को पुनर्स्थापित कर पाएँगे। वे सचेत हैं कि सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का
उनका कोई भी प्रयास रूढ़ि-आधारित नहीं हो। आतंकवाद तथा धार्मिक अतिवाद को वे
मानवता पर खतरा समझते हैं, अतः वे चाहते हैं लोग
धार्मिक विभ्रम में फँसकर विधर्मी न बने, धार्मिक उन्माद में
मानव जातिपर संकट न बने। लोकतांत्रिक मूल्य, व्यक्ति स्वातंत्र्य और विमर्श की विरासत को बचाने के लिये आज
मैथिली साहित्यकार सचेत हैं। वे वर्तमान को, इतिहास के अंध गलियों में धकेलना नहीं चाहते, बल्कि उसे भविष्योन्मुखी बनाने की कवायद कर रहें
हैं। स्थापित मान्याताओं, परम्पराओं तथा
सिद्धान्तो के प्रति शंका अथवा असहमति का भाव सदैव मानव सभ्यता को विकास के पथ पर
अग्रसर करता रहा है। वर्तमान मैथिली साहित्य वैचारिक भिन्नता, रचनात्मक मतभेद और विमर्श का दायरा बचाने और बढ़ाने के
लिये भी लगातार संघर्षरत है।
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