चंदन कुमार झा मैथिली कविताक नव मिजाज। चंदन कुमार झा नव से ठीक, मुदा मैथिली कविताक नव मिजाज कोना! ज एकहि वाक्यमे कह परएत कहब अपन संभावनामे। ‘धरतीसँ अकास धरि’ हुनकर जे काव्यपोथी से कविताक नव संभावनासँ संपन्न प्रस्थान। प्रस्थानके प्रस्थाने बूझि। ई ठीक जे कचास छै कवितामे, भेनाइये स्वाभाविक। एहि कचासक संगे कवितामे शब्द-व्यवहारक जे सहज रचाव ओ निश्चिते बहुत आश्वस्तकर। बहुत सैद्धांतिक विस्तारमे नहि जा, कविता शब्द-व्यवहारक रचाव पर एकटा संकेत केनाइ जरूरी। रूपकमे कही। शब्दक एक रूप संस्कृतिक गाछमे नित्य विकसित फूल जकाँ होइत अछि। डारि पर विराजैत एकटा फूल के जगह पर आर एकटा फूल आबि जाइत छैक। प्रकृतिक नित्य नूतनताक इएह विधान। डारिसँ टूटल फूलोमे खाली ओहि गाछे टाक नहि, मुदा संपूर्ण प्रकृति साँस लैत छै। एहन टटका फूलसँ बनाओल मालाक अपन सौंदर्य होइत छै, आ से कम नहि। कवितामे एहन ताजा फूल बहुत दिन तक साँस लैत रहैत छै। मुदा कविताक असली कारिगरी जे फूल डारियेमे रहए आ माला तैयार! एहन कवितामे कचास प्राणक स्पंदक प्रमाणत होइते छै ओ अपना संग-संग अपन पाठकके अपन घर-आँगनमे हाथ पकड़िक ल जाइत छै। एकरा एना बूझियोक बूझल नहि जा सकैत अछि। बूझ आ अ-बूझक बीच कविता ओहि विशाल परतीक विधान क लैत अछि जाहि परती पर पैर टिका कविता अपन केश आकाशक विस्तारमे सुखबैत छैथ-
सौंदर्यक ऐंद्रिक विराटताक प्रावधान कविताक संधान आ नव मिजाजक प्रस्थान बनि जाइत छै। मैथिलक जातीय सौंदर्यबोधमे प्रकृति आ स्त्रीक सहमेलक अदभुत ऐंद्रिकताक निवासमे निहित सौंदर्यक डर आ डरक सौंदर्यके चिन्हबाक चाही। एहि चिन्हापरिचैसँ नीक लागत, अपनहु मनोजगतके जगैत नजरिसँ देखबाक आनंद भेट सकैत अछि। मुदा एहि पर विस्तारमे अनत, एत हम कहब जे चंदन कुमार झाक कविता ‘डरबैछ राति’ पढ़ू--
सौंदर्यक ऐंद्रिक विराटताक प्रावधान कविताक संधान आ नव मिजाजक प्रस्थान बनि जाइत छै। मैथिलक जातीय सौंदर्यबोधमे प्रकृति आ स्त्रीक सहमेलक अदभुत ऐंद्रिकताक निवासमे निहित सौंदर्यक डर आ डरक सौंदर्यके चिन्हबाक चाही। एहि चिन्हापरिचैसँ नीक लागत, अपनहु मनोजगतके जगैत नजरिसँ देखबाक आनंद भेट सकैत अछि। मुदा एहि पर विस्तारमे अनत, एत हम कहब जे चंदन कुमार झाक कविता ‘डरबैछ राति’ पढ़ू--