'धरतीसँ अकास धरि' मैथिली काव्य परम्पराक नवोदित
नक्षत्रक आभासँ युक्त आद्योपान्त स्वानुभुत चिन्तनक प्रतिबिम्ब प्रतीत होइत अछि ।
सर्वत्र ग्राम्य ठेठ शब्दक प्रयोग प्रस्तुति कौशलक विलक्षणताकेँ दर्शबैत अछि । एहि
काव्य संग्रहमे कविक संवेदना, सामाजिक सरोकार, सौन्दर्य वोध, अपन लग-पासक घटना ओही रूपमे अनुदित भेल अछि, तें अनायास लोककेँ आकर्षित करैत अछि । भूत आ वर्तमानक
अनुभूति एवं भविष्यक चिन्ता विभाव-अनुभाव-संचारी भावक संयोग रूप रसनिष्पत्तिमे
सहायक प्रतीत होइत अछि । कविक सभ कवितामे प्रायः उत्कृष्ट वा उत्कृष्टतम अन्वेषणक
अपेक्षा नञ देखल जाइत अछि अपितु अपन मोनक तत्कालहि अनुदित भावक शब्दक प्रयोग काव्य
सौन्दर्यकेँ विस्तृत करैछ । संग्रहक प्रथम कविता "कहि दैत छी" भगजोगनीसँ
सूर्य धरि दृढ़आशा-विश्वासक अनुभूति करबैत अछि ।
एतावता ई काव्य संग्रह जीवनक संघर्ष, नव सृजनक प्रतीक रूपेँ उदित हेबाक सामर्थ्यसँ भरल-पुरल अछि । सभ कवितामे
प्रकृतिमे सजीवनता दृष्टगोचर होइत अछि । रस अलंकार ध्वनिक निर्पेक्ष नाना
व्यञ्जनोपभुक्त आनन्दोन्मुख तृप्तिक आभास सर्वथा होइछ ।
-सम्पादक ( प्रो. कृष्णकमार झा 'अण्वेषक' )
मैथिली दर्पण, फरवरी-मार्च-2015, अंकमे प्रकाशित