Wednesday, May 27, 2015

धरतीसँ अकास धरि


'धरतीसँ अकास धरि' मैथिली काव्य परम्पराक नवोदित नक्षत्रक आभासँ युक्त आद्योपान्त स्वानुभुत चिन्तनक प्रतिबिम्ब प्रतीत होइत अछि । सर्वत्र ग्राम्य ठेठ शब्दक प्रयोग प्रस्तुति कौशलक विलक्षणताकेँ दर्शबैत अछि । एहि काव्य संग्रहमे कविक संवेदना, सामाजिक सरोकार, सौन्दर्य वोध, अपन लग-पासक घटना ओही रूपमे अनुदित भेल अछि, तें अनायास लोककेँ आकर्षित करैत अछि । भूत आ वर्तमानक अनुभूति एवं भविष्यक चिन्ता विभाव-अनुभाव-संचारी भावक संयोग रूप रसनिष्पत्तिमे सहायक प्रतीत होइत अछि । कविक सभ कवितामे प्रायः उत्कृष्ट वा उत्कृष्टतम अन्वेषणक अपेक्षा नञ देखल जाइत अछि अपितु अपन मोनक तत्कालहि अनुदित भावक शब्दक प्रयोग काव्य सौन्दर्यकेँ विस्तृत करैछ । संग्रहक प्रथम कविता "कहि दैत छी" भगजोगनीसँ सूर्य धरि दृढ़आशा-विश्वासक अनुभूति करबैत अछि ।
एतावता ई काव्य संग्रह जीवनक संघर्ष, नव सृजनक प्रतीक रूपेँ उदित हेबाक सामर्थ्यसँ भरल-पुरल अछि । सभ कवितामे प्रकृतिमे सजीवनता दृष्टगोचर होइत अछि । रस अलंकार ध्वनिक निर्पेक्ष नाना व्यञ्जनोपभुक्त आनन्दोन्मुख तृप्तिक आभास सर्वथा होइछ । 

-सम्पादक ( प्रो. कृष्णकमार झा 'अण्वेषक' )

मैथिली दर्पण, फरवरी-मार्च-2015, अंकमे प्रकाशित

चंदनक 'संभावना':-माछ नै मैगी जकां



विभूति आनंद
आइ रवि अछि । छुट्टीक दिन । सिरमा मे कतोक दिन सं राखल अछि 'संभावना' । चंदन जीक सद्यःप्रकाशित 'हाइकू' कविता-संग्रह । खंड-खंड मे एकरा पढि चुकल छी । मूल सं पूर्व  रमण जीक विस्तृत भूमिका । फेर हिंदी कवयित्री सारिकाक दुटप्पी । फेर चंदनक ।
जापानी हाइकू कें चंदन कुमार झा बहुत कलात्मक ढंग सं मैथिली मे हाइजैक कयलनि अछि । प्रयोगमे तें सफल छथि । आरंभ मे हमरा ई हाइकू अबूझ लागल । फेर हम प्रयोग कयल । जखन मोन मे आयल, दू-चारि पढि, राखि दी । फेर तकरा गूनी । एहिना करैत, पढैत पूरा पोथी पढि गेलहुं । तें कोना कही जे नीक नै  लागल ! नीक तं लगबे कयल । तखन, माछ नै मैगी जकां लागल । नीक लगबाक एक कारण ईहो जे दूरक ढोल सोहाओन कोना लगै छै, से देखी ।
हं, एकरा पढैत मैथिली मे एकटा आर प्रयोग मोन पडैत रहल ! प्रवासी जी (मार्कण्डेय प्रवासी) , एकटा देसी प्रयोग कैने रहथि, आ जकरा नाम देने रहथिन -'तदर्थ' ! ईहो तिनपतिया छल । एक पुस्तक सेहो आयल रहनि - 'एतदर्थ' ! प्रसंगवश भूमिका मे एकर उल्लेख रहितय, जे प्रायः नहि अछि, तं नीक ।
मुदा एतय हमर चिंता अछि जे की चंदनक प्रयासकें उत्साहित कैल जयबाक चाही कि नहि ? व्यक्तिगत रूप सं हम प्रयोगक
पक्षधर रहल छी । 'चरिपतिया' समक्ष अछि ।
अंतिम शब्द, 
चिरंजीवी चंदन कें अशेष शुभकामना, एहि लेल जे ई आजुक मैथिलीक ललाटक चंदन छथि !










 Posted on FB; 25th May 2015.

"पचमेर" मधुप जीक १९४९ ई.मे प्रकाशित गीत-संग्रह थिकनि । एहिमे कुल ३७ गोट गीत संकलित अछि । श्रृंगार-भजनक अलावे एहि संग्रहक गीत सभमे सामाजिक रूढ़ि, जड़ता आ राजनैतिक छल-छद्मपर सेहो प्रहार कएल गेल अछि । एहि संग्रहक प्रायः सर्वाधिक लोकप्रिय गीत - हम जेबै कुशेश्वर भोर... थिक । ई गीत ओहि समयक थिक जहिया देशमे स्वतंत्रता टटका रहैक । मुदा एहि स्वतंत्रताक अवधारणामे महिला'क आत्मनिर्भता फरिच्छ नहि रहैक । मिथिलामे तँ एकदम्मे नहि । किन्तु "मधुप" जीक दृष्टि कतेक फरिच्छ रहनि, तत्कालीन सामाजिकतासँ हुनकर प्रतिवादो कतेक रसगर रहन्हि से एहि गीतक निम्न पाँती सभसँ अटकर लगाओल जा सकैछः-
"नहि संग पुरुषकेँ लै जेबै
जे इच्छा से किनि-किनि लेबै
युग भेल स्वतन्त्र, ककर ककरा छै भारा...
हम जेबै कुशेश्वर भोर
रंगि कै ठोर पहिरिकेँ काड़ा
झनकाय झनाझन छाड़ा...."
गीतांश,सौजन्यः- मधुपजीक बीछल बेरायल कविता, संपादक-फूलचन्द्र झा 'प्रवीण' 

"वर्णरत्नाकर"क चारिम कल्लोलमे चौंसठि कला'क उल्लेख अछि । एहिमे चौंसठि कलामे एक गोट कला अछि-"जलाघात" । विद्वान लोकनि एकर अर्थ-"पानि पीटब" कहैत छथि आ शंका व्यक्त करैत छथि जे ई कोन कला थिक ! ठिक्के पानि पीटयमे कोन कलाकारी चाही ? ओनहियो, अपना सभ ओतय कहबी सेहो छैक-पानि डेंगायब मने व्यर्थक काज ।मुदा, एहि पोथीमे कि तत्सम्बन्धी कोनो व्याख्यामे हमरा 'हेलब' शब्दक चर्च कतहु नजरिपर नहि पड़ल । की ई 'जलाघात' हेलब नहि भ' सकैत अछि ??

सम्भावना ( मैथिली हाइकु-सेनर्यु संग्रह)

हमर चारिम पोथी अगिला सप्ताहसँ विक्री'क हेतु उपलब्ध अछि । पोथीक दाम-१०० टाका अछि । इच्छुक पाठकवृन्द पोथी कीनबाक हेतु सम्पर्क करी -

चरिपतिया प्रसंग

वर्तमान समयमे जखन महाकाव्य प्रबंधकाव्य लिखब-पढब अप्रचलित,असुभितगर भेल जा रहल अछि, लघुआकारक काव्यविधा सभपर विमर्श उचित बुझना जाइछ । कखनोकाल एहनो लगैए जे भविष्यमे कोनो कविक सामर्थ्य एहिसं नापल जायत जे ओ कतेक कमसं कम शब्दमे कतेक बेसीसं बेसी अर्थ गढ़ैत छथि । वर्तमान आ भविष्यक एहि विशेषता कि विवशताकेँ चिन्हैत मैथिली रचनाकार छोट-छोट रचना दिस प्रवृत भेलाह अछि । एही क्रममे एखन चरिपतिया कविताक प्रचलन भेल अछि ।जेँ ई चरिपतिया सभ दोहा, सोरठा आदि नहि थिक अर्थात ओकर निश्चित परिभाषाक परिधिमे नहि अँटैत अछि तेँ सोझे चरिपतिया थिक । ओना नाम किछु आरो राखल जा सकैछ जेना गुलजार त्रिवेणी कि रवीन्द्रनाथ स्फुलिंग रखलनि । मुदा, एतबा स्वीकारबामे कोनो आपत्ति नहि हेबाक चाही जे चरिपतियो सभमे दोहा-सोरठाक आत्मा बसैत अछि ।
मैथिलीमे चरिपतिया लेखन नव नहि अछि बल्कि करीब सय वर्ष पूर्वहि कवीश्वर चन्दा झा अनेक चरिपतियाक रचना कयने छलाह, जे 'चन्द्र रचनावली'मे संग्रहितो अछि । एहिमेसं किछुकें सम्पादक खण्डित काव्य कहने छथि । उदाहरणार्थ चन्दा झाक दू टा चरिपतिया प्रेषित अछि :-
1.
अगणित अज्ञ मनुष हम वञ्चल
वनि वनि वाचक ज्ञानी ।
हाथ दराध माथ पर राखथि
ढोढ़क मन्त्र न जानी ।।
2.
आगम जोतिष तपक वल
पावि त्रिकालज्ञान ।
भावि आवि न दावि दे
कि करत मनुष महान ।। 
मुक्त छन्दावस्थामे कविता क्षेत्रमे सर्वाधिक प्रयोग भेलैए । आधुनिक मैथिली साहित्यमे सभसँ पैघ प्रयोगकर्ता चन्दे झा भेलाह । ताहिमे एकटा प्रयोग इहो कयलनि जे छन्दमुक्त छोट-छोट पदसभ लिखलाह (हुनकर पोथाक संदर्भ राखि इहो कहि सकैत छी जे-टिपलाह ) । उपरोक्त दुनू रचनामे हमरा कोनो छन्द नहि भेटल अछि । मात्र लय आ तुक'क अलावे । तेँ एहि रचना सभकेँ दोहा, आदि किछु कहब अनुचित होयत । एकटा आर महत्वपूर्ण तथ्य अछि जे ई दुनू रचना एहि रचनावलीमे 'प्रथमप्रकाशित' भेल अछि जे प्रायः संपादक डॉ. विशेश्वर मिश्रकेँ आचार्य रमानाथ झा जीसँ जे पाण्डुलिपि (कि पोथा) भेटल रहनि ताहिसँ उपराओल गेल होयत आ हम ई मानबाक लेल बाध्य छी जे एकरा चारि पाँतिमे ओहि पाण्डुलिपियेक आधारपर सजाओल गेल हेतैक । आब कने काल लेल जँ एकरा चरिपतिया नहि कहबै तँ काव्यशास्त्रक आधारपर कोन विधाक अंतर्गत राखब ? सेहो प्रश्ने अछि । संपादक दोसर रचनाक लेल 'खण्डित काव्यांश' सन किछु टिपैत छथि मुदा पहिलुक रचनाकेँ ओहो पूर्ण मानैत छथि, अर्थक दृष्टिएँ । इएह सभ आधार मानि हम एकरा मैथिली चरिपतियाक प्रारम्भिक रचना कहल अछि ।

हँ आइ जे चरिपतियाक प्रचलन बढ़ल अछि तकर एकटा नकारात्मकता अवश्य नजरि अबैत अछि जे जँ एकर लोकप्रियता बढ़त तँ दोहा-सोरठा आदिक लेखन भविष्यमे अप्रचलित भऽ जायत मुदा, फेर जँ सकारात्मक पक्ष देखी तँ, जँ एहू लाथे किछु नवतूरक लोक मैथिली भाषा-साहित्यसँ जुड़ैत छथि, कविता लेखन दिस प्रवृत होइत छथि तँ शनैः शनैः ई हुनक प्रवृतियो बनत आ निश्चिते किछु गुणवंत काव्यकलाप्रवीण काव्यशास्त्रीय कविता रचताह । पुरने फरमामे नवीन कथ्य गढ़िकऽ लोकप्रियताक शिखरपर चढ़ताह । अतः हम चरिपतियाक वर्तमान चलनिकेँ कोनो आन्दोलन (जेना कि श्री विभूति आनन्द जी अपन चरिपतिया शतकपूर्तिक उपलक्ष्यमे घोषित कयने छलाह) नहि मानैत छी किन्तु, काव्यक स्कूलमे प्रवेशक एकटा बाट अवश्य कहब ।

एतय चरिपतिया लेखककेँ सेहो काव्यशास्त्रमे प्रवीण आलोचक सभक आलोचना सहबाक सामर्थ्य होयब आवश्यक अछि । संगहि ओहि आलोचनाकेँ न्यूनतम करबाक हेतु प्रयास करैत, एकर निजगूत स्वर-स्वरूप'क निर्धारणक लेल निरंतर प्रयासरत रहय पड़तनि ।