Friday, November 23, 2018

समकालीन मैथिली साहित्य

मैथिली, भौगोलिक दृष्टि से भारत से नेपाल तक विस्तृत मिथिला भू-भाग की भाषा है तथा भारत के बिहार एवं झारखण्ड प्रदेश के उनतीस जिलों में तथा नेपाल के लगभग तेरह जिलों मे मुख्यतः बोली जाती है । दोनों देशों मे करीब सात करोड़ लोग मैथिली भाषा-भाषी हैं । आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच मैथिली भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है । भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भारोपीय भाषान्तर्गत मागधी प्राकृत की अपभ्रंश से उत्पन्न भाषाओं- मैथिली, असमिया, ओड़िया तथा बंगाली के बीच मैथिली प्राचीनतम भाषा है । सातवीं-आठवीं सदी में स्वतंत्र भाषा के रूप मे मैथिली का जो विकास हुआ वह ग्यारहवीं-बारहवीं सदी आते-आते अत्यंत परिष्कृत होकर सामने आया । मैथिली भाषा के इस आदिकालीन विकास यात्रा का सहज अनुमान ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित 'वर्णरत्नाकर' मे प्रयुक्त भाषा से लगाया जा सकता है । चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में विद्यापति की रचनाओं के बल पर इस भाषा की लोकप्रियता शिखर पर पहुँच गई । आज मैथिली संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज हो चुकी है तथा नेपाल में इसे द्वितीय राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है ।
सिद्ध साहित्य अथवा चर्यापद, डाक एवं घाघ वचनावली, प्राकृत-पैंगलम में प्रयुक्त मैथिली पद एवं ज्योतिरीश्वर कृत धुर्तसमागम नाटक तथा वर्णरत्नाकर नामक गद्य-ग्रन्थ मैथिली भाषा की प्राचीनतम साहित्य है । विदित हो कि वर्णरत्नाकर आधुनिक भारतीय भाषाओं उपलब्ध प्राचीनतम गद्य-ग्रंथ भी है । इस ग्रंथ की भाषा-शैली देखकर  प्रतीत होता है कि इससे पूर्व भी प्रचूर मात्रा में रचनाएँ अवश्य हुई होगी, कारण इस ग्रंथ की भाषा अत्यंत विकसित है ।
मैथिली साहित्य का मध्ययुग वस्तुतः विद्यापति युग है । कारण इस युग मे विद्यापति सबसे समर्थ रचनाकार हुए तथा समस्त पूर्वांचल में व्याप्त उनकी लोकप्रियता उन्हे निर्विवाद युगपुरुष बना दिया । मध्ययुगमे जब इस्लामी आक्रमण से आक्रांत भारतीय समाज अपनी सांस्कृतिक सुरक्षा हेतु संघर्षरत था, मिथिला के लोग अपनी सांस्कृतिक परिचिति की सुरक्षा हेतु अन्तर्मुखी हो गये थे । इसी क्रममे यहाँ परम्परागत धार्मिक मान्यताएँ एवं सभ्यता-संस्कृति आधारित आचार-विचार के पुनर्निधार्णन का प्रयास होने लगे । इस सामाजिक पुनर्संगठन मे विद्यापति तथा उनके पूर्वजों ने बहुमूल्य योगदान दिया । मगर जिन रचनाओं ने विद्यापति को युगपुरुष के रूप में स्थापित किया वह हैं उनकी पदावली । यहीं असंख्य गीति विद्यापति को मिथिला तथा इसके समीपवर्ती अन्य प्रदेशों में आश्चर्यजनक रूप से प्रतिष्ठित किया । विद्यापति के गीति की लोकप्रियता तथा समकालीन और परवर्ती साहित्यकारों पर उसके प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि परवर्ती चार सौ वर्षों तक रचनाकार उनके काव्य-परिपाटी का अनुसरण कर रचनाएँ करते रहे, मैथिली तथा स्थानीय भाषाओं के मिश्रण से बंगाल, असम तथा ओड़िसा में एक कृत्रिम भाषा-ब्रजबुलि का निर्माण हुआ । मध्ययुग में कविकोकिल विद्यापति पूर्वी भारत की लोकभाषाओं को साहित्यिक भाषा की स्तर तक पहुँचाने वाले प्रथम रचनाकार हुए ।  उनके मैथिली पदों का गांभीर्य, अनुभूति सघनता, संगीतात्मकता, तथा भाषायी सरलता उसे कालजयी बनाती है ।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मैथिली साहित्य विद्यापति के प्रभाव से मुक्त होने लगी तथा इस में आधुनिकता का प्रवेश होने लगा ।  यह कालखण्ड भारत हीं नहीं अपितु विश्व-इतिहास के लिये भी अत्यंत महत्वपूर्ण था । सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक आदि जीवन के हरेक क्षेत्र में इस समय परिवर्तन की गहमा-गहमी थी । भारतीय समाज पाश्चात्य विचारधारा से सम्पर्कित हुआ फलतः यहाँ बौद्धिक विकास की दृष्टि को गति मिला । वैज्ञानिकों ने प्रकृति का गहन अध्ययन-अनुशीलन कर मानवोपयोगी साधन का आविष्कार किया । नवीन सोच और बौद्धिकता के आगे समाज में व्याप्त रूढ़ीवादी विचार निष्प्रभावी होने लगी । वैज्ञानिक विकास ने औद्योगिक क्रान्ति का बीजारोपण किया । परिणामस्वरूप उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विस्तार होने लगा । प्रतिक्रिया स्वरूप समाज में नवजागरण आई और देश में स्वाधीनता आंदोलन का आरम्भ हुआ ।
उन्नीसवीं शतक के अन्तिम चरण मे नवजागरण की लौ मिथिला में पहुँची तथा बीसवीं सदी के आरम्भ तक समाज पर इसका स्पष्ट प्रभाव भी दिखने लगा । मानव सभ्यता के इतिहास में खासकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में बीसवी सदी का आगमन ऐसे वातावरण में हुआ जब यहाँ के लोग अपनी नई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ नया करने, कुछ नया रचने के लिए छटपटा रहे थे । इस छटपटाहट की पृष्ठभूमि में थी पारम्परिक जड़ता से मुक्ति की आकांक्षा और स्वातंत्र्य चेतना । इसी संक्रमणकाल में  मैथिली पत्रकारिताक का आरम्भ हुआ तथा इसके माध्यम से मैथिली साहित्यकारों ने सामाजिक जड़ता पर प्रहार शुरू किया । साथ हीं उन्होने राष्ट्रवादी चेतना को स्वर दिया, अंग्रेजी हुकूमत के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध समाज को जगाने का अभियान चलाया । कथा, कविता, उपन्यास, निबंध समेत प्रायः सभी विधाओं में इस समय समाज मे व्याप्त परम्परागत रूढ़ि-भंजन तथा प्रगतिकामी समाज के निर्माण हेतु लेखकों ने पृष्ठभूमि तैयार करना शुरू किया ।
जब भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन अपने चरम पर था, तभी मैथिली साहित्यधारा में नये-नये सामाजिक सरोकार का समावेश होने लगा। अन्यान्य भाषाओं की तरह मैथिली साहित्य में भी नये विचारधाराएँ मुखरित हुई, जो छायावादी, प्रगतिवादी और प्रयोगवादी प्रवृति के रूप में पश्चात विकसित होते गये । देश की राजनीतिक, धार्मिक मान्यता, अर्थव्यवस्था, सामाजिक ओ मानवीय मूल्यों में जो परिवर्तन आये, साहित्यिक पटल पर उसका चित्रण अवश्यंभावी था । इसी क्रम में युगीन जटिलता, अंतर्विरोध, वैयक्तिक अंतर्द्वन्द्व को सुलझाने तथा युग-जीवन की विसंगतियाँ एवं बिडम्बनाओं के उद्घाटन का साहित्यिक प्रयास क्रमशः 'नवलेखन' का आन्दोलनकारी स्वरूप धारण किया ।
स्वाधीनता का अनुभव भारतीय साहित्यकारों तथा नागरिकों के लिए