Wednesday, August 31, 2016

काव्यशास्त्रीय तत्व यथा- शिल्प-बिम्ब-प्रतीकादि लोककेँ कविताक प्रति आग्रही बनबैत छैक, मुदा लोक कविताप्रेमी ओकर कथ्यक कारणे बनैत अछि । छन्दबद्ध कि छन्दहीन, तुकान्त कि अतुकान्त कोनो प्रकारक कविता लिखैत काल कथ्यक महत्ताकेँ झूस नहि बुझबाक चाहियनि कविकेँ । शिल्पक नवीनता नहि कथ्यक समकालीनता कविताकेँ आधुनिक बनबैत छैक ।
वर्त्तमान समयमे हमरा लोकनि कथ्यसँ अधिक शिल्पक आग्रही भेल जा रहल छी । तकर एकटा पैघ उदाहरण कही जे, एकैसम शताब्दीक मैथिली कविता, कोन कविता थिक, एकर स्वर ओ स्वरूपगत वैशिष्ट्य की छैक, ताहिपर समुचित विमर्श एखनधरि नहि भेल अछि ।
आइ-काल्हि नव कविगण लिखैत छथि आ तकरा यथाशीघ्र प्रिंट वा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमे हमरा सभक सोँझा परसि दैत छथि । हमहूँ सभ ताहिमेसँ काँच-कचकुह रचनाकेँ बेराय, कविकेँ 'छपास रोग'सँ ग्रसित मानि लैत छी । ई नहि सोचैत छी जे आखिर ई रोग हुनका केना धेलकनि? ई रोग एकदम्मे नव अछि वा पहिनहुँ छल? हमरा जनैत ई रोग नव नहि अछि, पहिनहुँ छल । अन्तर एतबे आयल अछि जे आब प्रकाशन सुविधाक कारणे शीघ्र प्रकाशमे आबि जाइत अछि । पहिने तरे-तर कतेको कविकेँ अकाल-काल कवलित कयने होयत !
 मुदा, एकटा कटु सत्य इहो जे एहि रोगक पहिचान भेलाक बादहु उपचार नहि ताकल जा रहल अछि । तेँ जखन हमरा लोकनि कहैत छी जे 'छपास रोग' बढ़ि गेल अछि तखन, वस्तुतः प्रकारान्तरसँ इएह मानैत छी जे हमरा सभक सम्पादकीय-समीक्षकीय सुविधा घटल अछि ।


Posted on FB 28th June 2016